History of Lodhi Rajput During Mughal Period || लोधी राजपूतों का मुग़ल कालीन इतिहास || HISTORY OF MEDIEVAL INDIA

मुगल कालीन समय १५वी सदी से १८वी सदी तक लोधी (लोध-लोधा) राजपूत वीरों के लड़ाकू, स्वाभिमानी, अपराजित और संघर्षील योद्धा कौम के रूप में स्थापित होने के लिहाज से एक महत्वपूर्ण समय था। यह एक ऐसा काल था, जब उनके शौर्य, वैभव व योद्धा के रूप में उच्च मानदण्डों की पहचान मुगलों ने की थी। एक और जहाँ मध्य भारत में स्थित सभी लोधी क्षत्रिय राजघराने यथावत रहे वहीं मुगल शासकों ने उन्हें न केवल अपनी सेना में महत्वपूर्ण पद दिए बल्कि महत्वपूर्ण योजनाओं व अभियानों की जिम्मेदारी भी लोधी राजपूत वीरों के कंधों पर रखी। सम्राट अकबर द्वारा मुगल सम्राज्य की बागडोर अपने हाथ में लेते ही उन्होंने लोधी वीरों को अपनी सेना में स्थान दिया। अकबर की आगरा स्थित शाही सेना में ३०० घुड़सवार लोधी राजपूत थे। 


यही नहीं मुगल साम्राज्य के अंतर्गत आने वाले कई राज्यों में लोधी राजपूत वीरों की सैन्य टुकडियां मौजूद थी। जिसमें सरकार कोडा (पश्चिम) की फौज में २०० सवार (घुड़सवार) लोधी राजपूत जाति से सम्बन्धित थे। यही नहीं मूर्तिवाहन की फौज में २०० घुड़सवार व २००  मुग़ल सैनिक लोधी राजपूत वीर थे। मुगल फौज में लोधी राजपूतों को भर्ती करने और उनको सेना में ऊंचे पद देने का यह सिलसिला अकबर के समय से आरम्भ हुआ था और यह पूरे मुगल साम्राज्य काल में बदस्तूर जारी रहा। अकबर के बाद जंहागीर, जहांगीर के बाद शाहजहाँ। शाहजहाँ के बाद औरगंजेब पीढ़ी दर पीढ़ी मुग़ल फौज में लोधी राजपूत जाति के लडाकों की संख्या बढ़ती रही। साथ ही मुगल साम्राज्य का भरोसा भी बढता रहा। औरंगजेब के समय तक यह विश्वसनियता इतनी बढ़ गयी कि दक्षिण के अपने अभियानों के दौरान उसकी सेना का बहुत बड़ा हिस्सा लोधी क्षत्रिय वीरों का था, जिनमें १००० से ज्यादा घुड़सवार ५००० से ज्यादा पैदल लड़ाके व ५०० तोपखाने के संचालक थे। ये सेना एक वर्ष की यात्रा करके दक्षिण के उस स्थान पर पहुंची जहाँ उसकी आगे की पीढ़ियों को बसना था।

१७ वी सदी में लोधी राजपूत वीरों की सेना ने अपार वीरता व युद्ध कुशलता दिखाते हुए दक्षिणी क्षेत्र के शासक "मुहम्मद क़ुली क़ुतुब शाह" की मजबूत सेना पर विजय प्राप्त की । मुगल साम्राज्य का कुशल सूबेदार गाजीउद्दीन के नेत्रत्व में लोध वीरों की सेना ने वर्ष १६८६ में पहले बीजापुर को जीता फिर गोल कुण्डा साम्राज्य को। युद्ध के पश्चात लोध क्षत्रिय वीरों की सेना लम्बे समय तक सूबेदार गाजीउद्दीन के साथ मूसी नदी के किनारे पूरनपुल में सैन्य छावनी में रहे। यहाँ रह कर उन्होंने छोटे-बडे कई अभियानों में हिस्सा लिया। १७०० तक दक्षिण क्षेत्र के सभी छोटे-बडे राज्य, मुगल साम्राज्य के अधीन आ गए थे।

सन् १७१३ में सुबेदार गाजीउद्दीन की मृत्यु के पश्चात उसका पुत्र "मीर क़मर-उद-दीन ख़ान सिद्दिक़ी उर्फ़ निजाम-उल-मुल्क आसफजाह I (२0 अगस्त १६७१- १ जून १७४८)" उत्तराधिकारी बना। दिल्ली के मुगल बादशाह फ़र्रुख़ सियर ने उसे सूबेदार बनाया और 'निज़ाम-उल-मुल्क (१७१३)' के खिताब से भी नवाजा तथा मुहम्मद शाह ने 'आसफ़जाह (१७२५)' आदि उपाधियाँ प्रदान की।।  मुगल साम्राज्य के अस्थिर होने के साथ ही मीर क़मर-उद-दीन ख़ान सिद्दिक़ी ने स्वंय को स्वतन्त्र शाशक घोषित कर लिया और हैदराबाद को अपनी राजधानी बना लिया साथ ही सेन्य छावनी में रह रहे लोधी राजपूतो को रहने के लिए धूलपेट मूसी नदी के किनारे का इलाका मुहैया कराया गया। इसके साथ ही उसने एक नए वंश "आसफ़ जाही राजवंश" की नींव रखी। आसफ़ जाही राजवंश के कुल सात शासक हुए और सभी ने निज़ाम को अपने ओहदे में जोड़ कर रखा। उनके दरबार में लोध क्षत्रिय वीर कई महत्वपूर्ण पदों पर आसीन रहे जिन्हें हजारी, जमींदार, सूबेदार, इलाकेदार जैसी पद्वियों से नवाजा गया। यह पद्वियां स्वतन्त्र भारत तक कायम रहीं। स्वतन्त्र भारत में प्रमुख हजारी पद्वीधारी निम्न थे

1) रामचन्द्र सिंह हजारी

2) ढाल सिंह हजारी

3) पूरण सिह हजारी

4) बालाजी सिंह हजारी

5) नन्द राम सिंह जमींदार

6) रूपन सिंह जमींदार 

7) कल्याण सिंह जमींदार

8)  मेढें सिंह जमींदार

9) भगवान सिंह सूबेदार 

10) संतोशी सिंह सूबेदार

मुगल कालीन दौर में भारतीय लोध वीरों को दो तरफा पहचान मिली, पहले तो उनके सभी राजघराने/जागीरों को मान्यता मिल गयी। दुसरी- मुगलों द्वारा लोध वीरों की युद्ध मैदान की प्रतिकूल परिस्थितियों में भी डटे रहने की क्षमता को भी पहचाना गया। यही कारण था कि, मुगल काल के समय कई महत्वपूर्ण घरानों व मुगलों के सहयोगियों की सेना में लोध राजपूत वीर प्रमुख पदों पर थे, (देखें आइना ए अकबरी)। यही नही उस समय के कई ऐसे प्रमुख क्षत्रिय राजपूत राजघराने थे जिन्होंने मुगलों की सेना लोधी राजपूतों की बढ़ती पहुँच को अपने अस्तित्व के लिए खतरा माना था। मुगलों के सहयोगियों में जहाँ सरकार कोंडा, सरकार अहमदाबाद, मूर्तीवाहन व खुद मुगलों के पास मौजूद वीर लोध राजपूतों की सेना थी, वहीं उनके विरोधियों में जबलपुर, मण्डला, पन्ना व सुदूर उत्तर में गढ़वाल के पास भी क्षत्रिय लोधी राजपूत बहुल सेना थी। इनके अतिरिक्त जो छोटे-बड़े राज्य लोधी क्षत्रिय राजाओं द्वारा शासित थे, उनके पास तो स्वजातिय लोधी यौद्धाओं की सेना थी ही जो अपराजित होती थी।

प्रमुख इतिहासकार वृन्दावनलाल वर्मा ने अपनी ऐतिहासिक पुस्तक 'महारानी दुर्गावती' में गोंडवाना की सेना का वर्णन करते हुए लिखा, “रानी की सेना में परिहार राजपूत, परमार राजपूत आदि बहुत से क्षत्रिय राजपूत थे , और हाँ, क्षत्रिय लोधी राजपूत भी बहुत बडी संख्या में थे। वृन्दावनलाल वर्मा इसी पुस्तक में आगे लिखते हैं कि महारानी दुर्गावती की दूनवाली टुकड़ी में गोंड, राजपूत व लोधी क्षत्रिय इत्यादि थे।1555 से 1560 तक रानी दुर्गावती की सेना में युद्ध के दौरान जिन लोध क्षत्रिय वीरों ने वीरगती प्राप्त की थी उनकी स्मृति में कुछ 'मुड़चौरे' सिंगौरगढ़ के पास बने हुए हैं जो उनकी वीरता का प्रतीक है।

सन 1555 से 1560 के मध्य मालवा के शासक बाजबहादुर के गढ़ा मंडला को हथियाने के कई प्रयासों को रानी दुर्गावती ने इसी दूनवाली टुकड़ी जिसमें गौंड व लोध क्षत्रिय बहुतायात में थे की सहायता से विफल किया था। 

मुगल काल के दौरान लोधी राजपूत वीरों की गाथाएँ सिर्फ मध्य भारत तक ही सीमित नहीं थी बल्कि गढ़वाल के पहाड़ों में भी लोधी राजपूत वीरों की वीरता की गाथाएँ काफी प्रसिद्ध थी। जहांगीर के समकालीन गढ़वाल शासक राजा महीपतशाह के तीन प्रसिद्ध सेना नायकों की बात कही गयी है। जिनमें से सर्वाधिक पराक्रमी "रिखोला सिंह लोधी" को बताया गया है जो गढ़वाल के प्रधान सेनापति भी थे। अजय सिंह रावत अपनी किताब "गढ़वाल का इतिहास"  में लिखते हैं की 'जहाँ गढ़वाल में माधो सिंह भण्डारी को शेर और गाय के सींग के बाद तीसरा प्रसिद्ध शेर अगर किसी को माना जाता है तो वो हे रिखोला सिंह लोधी को। उत्तराखंड का आखरी भड़ रिखोला सिंह लोधी कहा जाता है।

References (सन्दर्भ)

आइन-ए-अकबरी (अर्थ:अकबर के संस्थान) - अबुल फज़ल 

महारानी दुर्गावती - इतिहासकार वृन्दावनलाल वर्मा

गढ़वाल का इतिहास - अजय सिंह रावत

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