History of Samrat Dahir Singh Lodhi | History of Sindh | सम्राट दाहिर सिंह लोधी का इतिहास

महाराजा धनंधर

राजा आदित्य केतु जो वीरमहा के कुल की 15 वीं पीढ़ी पर पाण्डु कुल के राजा क्षेमक के पश्चात् गद्दी पर बैठा। उसका शासन काल चल रहा था। परंतु प्रयाग के राजा धनंधर ने आदित्य केतु का वध कर दिया। अपनी पुरानी खोई हुई राजगद्दी को प्राप्त कर लिया। इससे पूर्व राजा धनधर प्रयाग के राजा थे। इस कार राजा धनंधर ने इन्द्रप्रस्थ का राज्य प्राप्त किया। धनंधर के पश्चात उसका पुत्र महर्षि राजगद्दी पर बैठा।


महाराजा महर्षि

महाराजा महर्षि, महाराजा धनंधर के पुत्र थे। आज के समय से 2300 वर्ष पूर्व मरूभूमि में (सिन्ध प्रदेश) पर महाराजा महर्षि राज्य करता था। उस समय वहाँ सोद, ऊमरू और सुमुरा लोधियों के सोद फिर्के के लोधी क्षत्रिय थे। उनकी राजधानी अलोर (अरोर) थी जो सिन्ध प्रदेश में सिन्धु नदी के पूर्वी तट बेखुर से छः मील पूर्व में स्थित हैं। उनके राज्य का विस्तार उत्तर में कश्मीर, पश्चिम में तेहरान और दक्षिण में अरब सागर के तट तक था। कर्नल जेम्स टॉड महोदय ने उनके राज्य का विस्तार क्षेत्रफल 17600 वर्ग मील बताया है। महाराजा महर्षि के नाम पर ही लोधी क्षत्रियों में माहुर फिर्का (शाखा) बना था। अबुल फजल ने लिखा है कि महाराजा महर्षि के सजातीय 'माहुर' कहलाते थे और उनके नाम पर सिंध देश "महारान" (माहुर लोगों का धाम) कहलाता था। अबुल फजल के अनुसार 327 ई.पूर्व में जब सिकन्दर और उसकी यूनानी सेना ने सिंध देश पर आक्रमण किया तो उससे चले युद्ध में महाराजा महर्षि को पराजय मिली और महाराजा महर्षि युद्ध में घमासान जंग करते हुए मारे गये इसके पश्चात् यूनानी सेना लूटमार कर वापिस चली गई।


महाराजा रायसा

अपने पिता महाराजा महर्षि की मृत्यु के पश्चात् "युवराज रायसा" सिंध की राजगद्दी गद्दी पर बैठै थे, वह महाराज महर्षि के एक मात्र पुत्र थे। अपने पिता की भांति वह भी युद्ध कुशल एवं वीर योद्धा थे। उन्होंने अपने राज्य का संचालन भी ठीक किया। वह अपने ब्राह्मण मंत्री पर बहुत विश्वास करते थे। 'चच' नामक ब्राह्मण मंत्री ने महाराजा रायसा को धोखा देकर मार डाला और स्वयं गद्दी हथियाकर राजा बन बैठा। महाराज रायसा की मृत्यु के समय उनका अल्प वयस्क पुत्र था इतिहास में वर्णन मिलता है कि महाराजा रायसा की की पत्नी महारानी सोहन्दी को उस दोखेबाज चच ब्राह्मण ने जबरदस्ती अपनी पत्नी बना लिया था, किन्तु उसने महाराजा रायसा के अल्प व्यस्क पुत्र दाहिर को नहीं मारा था। महाराजा रायसा की पत्नी महारानी सोहन्दी अपने अल्प व्यस्क पुत्र दाहिर के साथ अपने दिन काटने लगी थी और उनके बड़े और शक्तिशाली होने का इंतजार करने लगी थी ताकि वो आगे जाकर अपने पिता के साथ हुए छल का बदला ले सके। राजकुमार दाहिर सेन का बचपन दादी माँ के सानिध्य में बीता था। जब दाहिर सेन व्यस्क हुए तब उन्होंने उस गद्दार चच ब्राह्मण को परास्त कर और उसे उसके कर्मो का फल देकर अपना राज्य पुनः प्राप्त कर लिया और सिन्ध प्रदेश मरूभूमि के महाप्रतापी सम्राट बने।


सम्राट दाहिर सिंह लोधी

महाराजा रायसा को धोखाधड़ी से उनके ही मंत्री ने मार दिया था। उस समय महाराज रायसा का पुत्र अपनी माँ सोहन्दी की गोदी में था। चच नामक मंत्री ने गददी हथिया ली और राजा बन गया। व्यस्क होने पर दाहिर अपने पिता के राज सिंघाशन पर बैठा। वह सोद वंशीय लोधी क्षत्रिय था। सोद लोधी क्षत्रियों की उप शाखा रही है, दाहिर इसी शाखा का इतिहास प्रसिद्ध सम्राट था।

                          पं. सूर्यदेव शर्मा सेवा निवत्त प्रधानाचार्य डी.ए.वी. कॉलेज अजमेर ''धार्मिक शिक्षा दशम भाग प्राथमावर्ती सन् 1938 में दाहिर का स्पष्ट वर्णन करते हुये लिखते है कि सिंध देश का राजा दाहिर बड़ा ही सच्चा और वीर क्षत्रिय था।"

'दुर्गावती' नामक नाटक में स्वर्गीय बद्रीप्रसाद भट्ट लिखते हैं।

सिन्ध देश पर चढ़े विधर्मी थे जब पहले,

तब जिनसे भिड़ने पर थे उनके दिल दहले ।।

प्रिय देश की स्वतंत्रता की रक्षा के हित,

किये जिन्होंने लड़ते लड़ते प्राण समर्पित ।।

वह क्षत्रिय कुल के दीप, यश जिनका जग में छा रहा,

थे दाहिर वे जिनका विरद, अब तक गाया जा रहा ।।

सम्राट दाहिर सिंह लोधी का यश सारे भारत वर्ष में छाया हुआ था, उनकी ख्याति दुनिया के अन्य देशों में भी फैली हुई थी। भारत में उन दिनों सोना चांदी, धन दौलत के खजाने भरे पड़े थे। गरीबी नाम की कोई चीज  नहीं थी। प्रजा सुखी थी। दीनता-हीनता व कमजोरी का नाम नहीं था। विदेशी शासक राजे महाराजे एवं मुसलमान संपन्नता को देखकर कुढ़ रहे थे। महाराज की राजधानी अलोर में थी। उन दिनों अलोर विकास का केन्द्र था। इन दिनों दमिश्क (ईराक) में मुसलमान खलीफा का निरंकुश शासन था। जनता द्वारा निर्वाचित खलीफा पैगम्बर मोहम्मद साहब का प्रतिनिधि, मुस्लिम धर्म का रक्षक और प्रधान न्यायाधीश माना जाता था। उसने अपनी ओर से हज्जाज को गवर्नर बनाया। उन दिनों ईराक के व्यापारी भारत आते और व्यापार करते थे भारत की दशा देखकर यहां की खुशहाली की कहानी खलीफा को सुनाया करते थे। खलीफा ने सम्राट दाहिर की अतुल संपत्ति एवं वैभव को अपना निशाना बनाने के लिये बहाना ढूढ़ निकाला सिन्ध के डाकुओं द्वारा मुसलमान व्यापारियों  के माल और अनाथ कन्याओं को लूटने का बहाना लेकर गवर्नर हज्जाज ने सत्रह वर्षीय अपने भतीजे और दामाद नर पिशाच मोहम्मद बिन कासिम को सन् 712 ई. में सिन्ध पर आक्रमण करने भेजा। मुहम्मद बिन कासिम ने शक्तिशाली सेना से जो 60,000 घुड़सवार एव कुछ पैदल सिपाही तथा 300 करहा सवार और तोपखाने सहित सिन्ध प्रांत पर आक्रमण कर दिया। कासिम सबसे पहले देवल पर आ धमका, परंतु देवल (करांची) का किला भारी भरकम पत्थरों से बना सुदृढ़ गढ़ था। जहाँ परिन्दा भी पर नहीं मार सकता था। कई दिनों तक डटे रहने के बाद भी अभेद्य दुर्ग को भेदन नहीं किया जा सका । डॉ.सूर्यदेव शर्मा ने अपनी 'युद्धनीति और अहिंसा'' नामक पुस्तक में लिखा है की मोहम्मद बिन कासिम जब भागने ही वाला था उस समय एक देशद्रोही पुजारी ने कासिम के पास जाकर बताया यदि आप मेरी रक्षा करें और दक्षिणा दें तो मैं देवल (करांची) की विजय का उपाय बता सकता हूँ। कासिम इसे सुनकर बड़ा प्रसन्न हुआ। पुजारी ने कासिम को बताया कि मंदिर के शिखर पर जो झण्डा लगा हुआ है, उसको गिराने से युद्ध कर रहे लोधी क्षत्रिय योद्धा और अन्य हिन्दुओं की हिम्मत टूट जायेगी। वे समझ लेंगे कि देवता अप्रसन्न हो गया है और वो हथियार डाल देंगे। 


                                कासिम की मुसलमानी सेना ने तोपों से झण्डा गिरा दिया जिससे हिन्दुओं और क्षत्रियों में हाहाकार मच गया और उन्होंने हथियार डाल दिये और दुर्ग पर सहज में अधिकार हो गया। पुजारी ने कासिम को देवल स्थित सम्राट दाहिर सिंह लोधी का कोषालय दिखाया। कासिम ने निष्फिक्र होकर भारी भरकम 17,200 मन सोना और सोने से बनी 6000 ठोस मूर्तियाँ जिसमें सबसे बड़ी मूर्ति तीन मन की थी और भारी मात्रा में हीरा पन्ना, जवाहरात लूटा। पुजारी जिसका की नाम मोका बसैया था जब दक्षिणा लेने गया तो कासिम ने कहा कि जल्लाद को बुलाओ जल्लाद आया और फिर कासिम ने कहा कि जो व्यक्ति अपने मालिक के साथ विश्वासघात और अपने मजहब के लोगों के साथ दगा कर सकता है उसे दुनिया में रहने का कोई अधिकार नहीं उसको तलवार से मौत के घाट उतार दिया गया और कुछ इस तरह गद्दार पुजारी को दक्षिणा मिल गई।

                           20 जून 712 ई. को दूसरा आक्रमण वहमनाबाद पर हुआ। सम्राट दाहिर अपनी पूरी शक्ति से हाथी पर सवार होकर कासिम के आक्रमण को रोकने गए फिर क्या था राजपूती सेना मुसलमानों से मोर्चा लेने लगी। इस्लामी सेना भारतीय कट्टर सिपाहियों के आगे टिक न सकी। कासिम घबरा गया और भागने ही वाला था, परंतु देव योग से किसी का वश नहीं चलता। राजा दाहिर हाथी पर खड़े होकर मुसलमानी सेना को मार रहे थे इसी समय कासिम के सैनिक हाथियों के नेत्र छेदने लगे। हाथी व्यथित होकर इधर उधर भागने लगे। शत्रु की लगातार तीरंदाजी से सम्राट दाहिर का हाथी बिदक गया और सिन्ध नदी में कूद गया। कासिम के इशारे से सिपाही ने सम्राट के टुकड़े कर दिये। चंद्रवंशी लोधी क्षत्रियों का ध्वज झुक गया और युद्ध बंद हो गया।

                        शहीद राजा दाहिर की याद में भारतीय इतिहासकार पुरूषोत्तम नागेश ओक महोदय अपनी ऐतिहासिक पुस्तक ''भारत के मुस्लिम सुल्तान'' भाग 1 से पृष्ठ क्रमांक 17 पर राजा दाहिर के रणभूमि में बलिदान होने का जो वर्णन करते हैं। उसमें राजपूतों का वीरत्व और गौरव झलकता है। वह कहते है कि सन् 712 ई.मे.....वीर क्षत्रिय शिरोमणि नृप दाहिर समर भूमि में सो गया। उसकी आत्मा असीम में समा गई। भारत माता के इस वीर पुत्र को अपनी अंक में लेने के लिये सिन्धु की लहराती लहरों को भेजा। उसका शव और रक्त जल में विलीन हो गया। भारत माँ का वह लाल मरकर भी अमर हो गया।

                 इस हादसे के बाद मुसलमान आक्रमणकारी नर पिशाच बन गये। लूट पाट का नृशंस ताण्डव मचा दिया, हिन्दुओं को मारकर खुनी होली खेली। लूट में उसे 17200 मन सोना प्राप्त हुआ उसने कहा ''यह देश सोने का घर है।'' यहाँ प्राचीन मंदिरों में सोना, चांदी, हीरे, जवाहरात आदि से निर्मित मूर्तियाँ जो हिन्दुओं की आस्थाओं का केन्द्र थी तोड कर हाथी, घोड़े, ऊँटो पर लादकर स्वेदश ले गया। इन दुष्ट इस्लामी राक्षसों ने एक लाख हिन्दू कन्यायें एवं रमणियाँ कैद कर अपने देश ले जाकर बेचा। बीस हजार व्यक्तियों के सिर कलम कर मार डाला। जिन लोगों ने मौके पर इस्लाम धर्म स्वीकार नहीं किया उनकी दुर्गतियाँ कीं मृत्यु का ऐसा ताण्डव सुना न देखा गया। कुओं में जहर डाला गया गाँवों में खेत खलिहानों में आग लगाई गई घरों में घुसकर बलात्कार किये गये। सैकड़ों हिन्दुओं को दास बनाकर ईराक भेजा गया

                 जैसे ही राजमहल में सम्राट दाहिर के मरने की सूचना पहुंची तो प्रथम दोनों वीरांगना महारानियों ने अपने पुत्र जय सिंह  को साथ लेकर ईराकी सेना से युद्ध किया, परंतु हार होने पर दोनों रानियाँ मैनाबाई एवं लादी बाई ने हजारों हिन्दू क्षत्राणियों के साथ जौहर कर लिया। जौहर क्षत्रियों में एक प्रथा है जिसमें रणभूमि में राजा की मृत्यु होने पर या दूसरे विधर्मियों से अपनी आबरू बचाने के लिये हिन्दु क्षत्राणियाँ अग्नि प्रवेश करती हैं। सम्राट दाहिर सिंह लोधी की वीर पुत्रियाँ कु. सूर्य देवी, कु. परिमाल देवी को कासिम ने खलीफा को खुश करने के लिये ईराक भेज दिया जहाँ उन्होंने काशिम को उसके कुकर्मो की सजा दिलवाई और फिर अपनी आबरू बचाने के लिए अपने खंजर अपने पेट में घोप लिए। भारत पर जिन मुसलमानों ने आक्रमण किये उन सबका उद्देश्य एक ही प्रतीत होता है। एक भारतीय संपदा धन धान्य सोना चाँदी लूटकर स्वदेश ले जाना, और दूसरा भारतीय संस्कृति एवं हिन्दुओं के केन्द्र, मंदिर देवालयों, मूर्तियों, सांस्कृतिक धरोहरों को ध्वस्त करना।   


References (सन्दर्भ )

(1) The Early History of India à by Sir Vincent A. Smith

(2) The first Hindu kingdom à by Dr. C.V. Vaidya

(3) Downfall of Hindu Kingdom à by Dr. C. V. Vaidya

(4) भारतीय इतिहास सन् 202 से 800 ई. à by Dr. V. Smith, Col. James Tod, S. Burn

(5) भूली बिसरी यादें इतिहास के पन्नों से à लेखक योगाचार्य चन्द्रभानु गुप्त

(6) लोधी क्षत्रिय वृहत्त इतिहास à लेखक खेम सिंह वर्मा

(7) लोधी क्षत्रिय राजपूतों का इतिहास (दिव्तीय खंड) àलेखक रामधनसिंह नरवरिया "राष्ट्रबंधु"

Comments

Post a Comment

Popular posts from this blog

History of Thakur Dariyav Singh Lodhi || खागा के अमर सहीद ठाकुर दरियाव सिंह लोधी का इतिहास

Kavi Chandrabhan Singh Lodhi || कवि चन्द्रभान सिंह लोधी