History of MahaRaja Hirdeshah Lodhi || महाराजा हिरदेशाह लोधी जी का इतिहास || 1842-1857 Revolt History

अंग्रेजों के खिलाफ पहली लड़ाई छेड़ने का श्रेय पक्षपाती इतिहासकारों ने मंगल पांडे को दिया जबकि उनके पहले बुंदेलखंड की हीरापुर रियासत के महाराजा हिरदेशाह जूदेव लोधी ने अंग्रेजों को इस कदर पानी पिला रखा था कि लंदन में बैठी महारानी विक्टोरिया का सिंहासन भी डोल गया था। 

 ब्रिटिश हुकूमत के विद्रोही हीरापुर रियासत के महाराज हिरदेशाह लोधी

महाराजा हिरदेशाह लोधी बुंदेलखंड विद्रोह-1842 के प्रमुख नायक थे। यद्यपि यह विद्रोह कंपनी सरकार द्वारा दबा दिया गया था, लेकिन 1857 के समर में महाराजा हिरदेशाह लोधी ने पुन: बलिदानी भूमिका निभाई थी, जिसमें इनका पूरा परिवार शहीद हो गया था। अंग्रेजों के विरुद्ध 1842 के विद्रोह एवं 1857 के समर में महाराजा हिरदेशाह लोधी का साथ उनकी बिरादरी के अन्य लोधी राजाओं, तालुकेदारों, जागीरदारों प्रजाजनों तथा गोंड़ राजाओं और उनकी प्रजा ने दिया था। ब्रिटिश दस्तावेज महाराजा हिरदेशाह लोधी को 1842 के विद्रोह एवं 1857 के ग़दर का प्रमुख दोषी महाराजा हिरदेशाह लोधी को मानते हैं, लेकिन पूर्वाग्रही भारतीय लेखक और इतिहासकारों ने उनके त्याग और बलिदानों को जानबूझकर नज़रंदाज़ कर दिया।   

महाराजा हिरदेशाह लोधी के पूर्वज महाराजा ईश्वरदास लोधी महोबा के महाराजा परमाल के मित्र अनन्य सहयोगी थे। एक बार वीर आल्हा-ऊदल की अनुपस्थिति में जब महाराजा पृथ्वीराज चौहान ने महोबा पर आक्रमण किया था तो महाराजा ईश्वरदास अपने पुत्र कुँवर राजेंद्र सिंह लोधी और सेना 56000 सेना के साथ महाराजा परमाल की मदद करने के लिए महोबा आ गए इस युद्ध में पृथ्वीराज चौहान को पराजित होना पड़ा था। इस युद्ध में महाराजा ईश्वरदास लोधी के पुत्र को जान गंवानी पड़ी थी।

 बुंदेलखंड के इलाकों में नाटकों के जरिए जीवंत है महाराजा हिरदेशाह की शौर्यगाथा

सन 1857 का विद्रोह स्वाधीनता संग्राम इतिहास में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के रूप में प्रसिद्ध है। लेकिन इससे भी 16 वर्ष पहले सन 1841 में वीरभूमि बुंदेलखंड में अंग्रेजों के विरुद्ध क्रांति का बिगुल बज गया था, जो सन 1843 तक जारी रहा। यह कंपनी सरकार को उखाड़ फेंकने का प्रथम संघर्षपूर्ण प्रयत्न था। यह बुंदेलखंड विद्रोह बुंदेलखंड के इतिहास की महत्वपूर्ण घटना है। इस बुंदेलखंड विद्रोह के अग्रणी नेता हीरापुर (हीरागढ़) के महाराज हिरदेशाह जूदेव लोधी थे। उस दौर में राजा केवल अपने राज्य के शासक ही नहीं हुआ करते थे वरन वे अपनी जाति के मुखिया हुआ करते थे। और उनमें जातीय एकता थी। इसलिये महाराजा हिरदेशाह के आह्वान पर समूचे बुंदेलखंड के लोधी राजपूत राजा, जागीरदार, मालगुजार और तालुकेदार तथा समस्त किसान अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह में शामिल हो गए थे। इस संग्राम में बुंदेला राजपूत एवं गौड़ जाति के राजा जागीरदार व जमींदारों ने भी भाग लिया था। 

"इत जमुना, उत नर्मदा, इत चंबल उत्तर टोंस"

वाले विस्तृत बुंदेलखंड क्षेत्र में यह संघर्ष फैला था, जो 1857 के संघर्ष जैसा व्यापक रूप तो न ले सका लेकिन 1857 के स्वतंत्रता आंदोलन के बीज इसी प्रथम संघर्ष में छुपे हुए थे। 1857 के विद्रोह में मध्यप्रांत के समस्त लोधी क्षत्रिय जन अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध में शामिल हो गए थे (आर. वी. रसैल- 1916)। डॉ. सुरेश मिश्र अपनी पुस्तक ‘रामगढ़ की रानी अवन्तिबाई’ में पृष्ठ 11 पर लिखते हैं कि “1842 के बुन्देला विद्रोह के समय सागर नर्मदा प्रदेश में जो विद्रोह हुआ था उसमें लोधी जागीरदारों ने बढ़-चढ़ कर भाग लिया था। इनमें नरसिंहपुर जिले के हीरापुर के महारजा हिरदेशाह लोधी और सागर जिले का मधुकर शाह प्रमुख थे।” ब्रिटिश सत्ता के प्रति लोधियों के विरोध की यह विरासत 1857 में और ज्यादा मुखर हुई और इसकी अगुआई रामगढ़ की महारानी अवन्तिबाई लोधी ने की थी। जबकि वास्तव में मध्यप्रांत के स्वातंत्र्य समर 1857 के प्रमुख ऐतिहासिक प्रेरणाश्रोत महाराजा हिरदेशाह लोधी ही थे।

1842 के बुंदेलखंड विद्रोह के बाद 1857 के स्वातंत्र्य समर में महाराजा हिरदेशाह जूदेव लोधी और उनका पूरा राजपरिवार पुन: अंग्रेजों के विरुद्ध सशस्त्र विद्रोह में शामिल हो गया। उनके भाई सावंत सिंह 1857 के युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए और दूसरे भाई गजराज सिंह भी अंग्रेजों से युद्ध करते हुए गिरफ्तार हुए और सन 1858 के मध्य में उन्हें फांसी दी गई तथा 28 अप्रैल 1858 को महाराजा हिरदेशाह भी वीरगति को प्राप्त हुए। महाराजा हिरदेशाह लोधी के पुत्र मेहरवान सिंह 1857 में अंग्रेजों से युद्ध करते हुए शहीद हुये थे। इस प्रकार हीरापुर के लोधी राजपूत राजवंश की पीढ़ियों ने 1841 से 1858 तक संघर्ष किया। स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में इस परिवार का अद्वितीय स्थान है। आर. वी. रसेल ने नरसिंहपुर जनपद गजेटियर के पृष्ठ संख्या 62 व 63 पर लिखा है कि ‘यह ध्यान देने योग्य है कि 1842 के बुंदेला विद्रोह और 1857 दोनों में विद्रोह को प्रमुख रूप से भड़कानेवाला एक पहाड़ी लोधी हीरापुर का राजा था’। लेकिन इतिहासकारों ने बुंदेलखंड विद्रोह के नायकों के साथ न्याय नहीं किया।

वीर योद्धा आल्हा-ऊदल, महारानी दुर्गावती, बुंदेलकेशरी महाराजा छत्रसाल बुंदेला आदि वीर-वीरांगनाओं की शौर्य गाथाएं बुंदेलखंड के युवकों की प्रेरणा स्रोत रही हैं। बुंदेलखंड क्षेत्र लंबे समय से मुगलों के आक्रमण से टकराता चला आ रहा था। अतः संपूर्ण बुंदेलखंड में वीरता शौर्य पराक्रम की भावनाएं हर नागरिक में रची बसी थी।

सन 1839 में बुंदेलखंड के कुछ राजा राजकुमार एवं जमींदार काशी में होने वाले बुढ़वा मंगल मेला देखने गए थे। वहां उन्हें बंगाल, बिहार और अवध क्षेत्र में अंग्रेजों के द्वारा किए जा रहे अन्याय व अत्याचारों का पता चला। चारों ओर अंग्रेजी राज्य के विरुद्ध जन असंतोष दृष्टिगोचर हुआ। उससे उनकी विद्रोही भावना में वृद्धि हुई। काशी के बुढ़वा मंगल मेले से प्रेरणा लेकर लौटे राजा जमींदार अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह भावना जगाने में लग गए।

अगले वर्ष सन् 1840 में काशी के बुढ़वा मंगल मेले की तर्ज पर सूपा (चरखारी ) गांव में बुढ़वा मंगल मेले का आयोजन किया गया सूपा में चरखारी राज्य के पूर्व राजा मंडनशाह तथा राजा विकट राय लोधी के वंशज लोधी जागीरदार निवास करते थे सूपा के लोधी राजपूत जमीदारों ने इस मेले का सारा उत्तर दायित्व संभाला । गोपनीय ढंग से बुंदेलखंड के अनेक राजाओं और जागीरदारों से संपर्क किया गया और इस मेले का उद्देश्य समझाया गया। प्रकट रूप से मेले का प्रचार हुआ। इस मेले में जैतपुर (महोबा) के बुंदेला राजा परीक्षित, हीरापुर के महाराजा हिरदेशाह लोधी, चिरगांव झांसी के रायबहादुर भगत सिंह नाराट के जागीरदार मधुकर शाह बुंदेला चंद्रपुर के जागीरदार जवाहर सिंह, गोहांड (राठ) के जमीदार अमर सिंह महतो तथा क्षेत्र के लोधी एवं बुंदेला जमींदारों ने बड़ी संख्या में भाग लिया सबने मिलकर गोपनीय रूप से अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष का निर्णय लिया और योजना तैयार की। जैतपुर (महोबा) के राजा परीक्षत को उत्तरी बुंदेलखंड क्षेत्र के विद्रोहियों का अध्यक्ष चुना गया। विद्रोह को सफल बनाने और प्रजा का राज्य कायम करने का संदेश सावधानीपूर्वक सभी जगह पहुंचाया जा रहा था। हीरापुर के महाराजा हिरदेशाह लोधी, नाराट के जागीरदार मधुकरशाह बुंदेलखंड के दक्षिण में सागर नर्मदा टेरिटरी क्षेत्र में संपर्क कर क्रांति की आग सुलगा रहे थे। इस अभियान में मदनपुर (नरसिंहपुर) का गौड़ सामंत डिल्लनशाह भी अपने क्षेत्र के असंतुष्ट जमीदारों, भू-स्वामियों को साथ लेकर विद्रोही बन गए इस तरह बुंदेलखंड के दक्षिणी भाग में विद्रोह की ज्वाला जल उठी।

महाराजा हिरदेशाह जूदेव लोधी के नेतृत्व मे कंपनी सरकार के ठिकानों पर आक्रमण कर दिया गया सर्वप्रथम गजपुरा चौकी पर अधिकार कर लिया और अंग्रेजों को मार भगाया, लेकिन पूरी तैयारी के साथ कैप्टन ब्राउन के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना ने हीरागढ़ पर चढ़ाई कर दी। विद्रोही सेना ने नगर खाली कर दिया। अंग्रेजी सेना ने हीरापुर (हीरागढ़) को ध्वस्त कर दिया और नगर को लूट लिया। हीरागढ़ के ध्वस्त होने के बाद से हीरागढ़ को हीरापुर कहा जाने लगा। महाराजा हिरदेशाह विद्रोही सेना के साथ तेज गढ़ पहुंचे। तेज गढ़ में महा राजा हिरदेशाह के पूर्वजों का ही राज था (नोट - तेजगढ़ को महाराजा हिरदेश जी के पूर्वज महाराजा तेजी सिंह जूदेव लोधी जी ने बसाया था)। अब उनके वंश के एक लोधी जागीरदार की जागीर थी, उसने विद्रोही सेना का स्वागत किया और हर प्रकार का सहयोग किया। महाराजा हिरदेशाह ने नरसिंहपुर पर घेरा डाल दिया और अंग्रेजों को वहां से मार भगाया। दमोह, जबलपुर और नरसिंहपुर के बहुत से भाग अधिकार में कर लिये। विद्रोही सेना आगे बढ़ती गई जनपद सागर के मुख्यालय को घेर लिया और अंग्रेजों को परास्त कर सागर को मुक्त कराया। जबलपुर अंग्रेजों का गढ़ था, वहां उनकी भारी सेना जमा थी, अत: राजा हिरदेशाह उससे बचकर विद्रोही सेना को एक तरफ से निकाल कर आगे बढ़ गये। विद्रोही सेना ने नर्मदा नदी को पार किया, वहां के किसानों ने उनका साथ दिया। विद्रोहियों ने ढूंढ-ढूंढ कर कंपनी सरकार के अधिकारियों को परास्त कर वहां से निकाला। वे नगर-गांव अंग्रेजों से खाली कराते चले गये। महाराजा हिरदेशाह का नाम सुनकर गोरे कांपने लगे। उनको बंदी बनाने के लिये पांच सौ रुपए इनाम की घोषणा की गई। महाराजा हिरदेशाह अब भूमिगत होकर छापामार युद्ध का संचालन करने लगे। कंपनी सरकार हैरान थी कि एक वर्ष से अधिक समय बीत जाने पर भी विद्रोहियों को नहीं पकड़ा जा सका। विद्रोही छापामार पद्धति से लड़ते थे। इसके साथ ही अंग्रेजों की गतिविधियों का पता विद्रोहियों को तो लग जाता था, परंतु विद्रोहियों की योजनाओं का पता कंपनी सरकार के अधिकारियों को न चल पाता था। बड़े-बड़े मालगुजार उन्हें भोजन देते थे तथा खतरों से उन्हें सचेत कर देते थे। लोगों में विद्रोहियों का भय इतना समाया था कि कोई उनके विरुद्ध बात ही नहीं करता था।


 गवर्नर जनरल एलनबरो

गवर्नर जनरल लार्ड एलनबरो और ब्रिटिश सेना अध्यक्ष दोनों ही घबरा उठे, क्योंकि इस समय उनका पूरा ध्यान अफगानिस्तान में अपनी प्रतिष्ठा को प्राप्त करने में लगा हुआ था। दूसरे बुंदेलखंड का क्षेत्र अंग्रेज सैनिकों के लिए बिल्कुल अपरिचित था। निराश होकर मदन सिंह नामक एक व्यक्ति को अंग्रेजों के लिए मार्गदर्शक बनाया गया, किंतु वह विद्रोहियों से मिला हुआ था। उसने सेना को घने जंगल में ऐसा भटकाया कि उन्हें रास्ता ही ना मिला। उसने सेना को गहन जंगल में उलझाकर विद्रोहियों को सूचना दे दी और अंग्रेजी सेना को बुरी तरह पिटवा दिया। जब लंबे समय तक विद्रोही न पकड़े जा सके तो होशंगाबाद के कैप्टन वोलैंड ने सागर के कमिश्नर को सुझाव दिया कि दमन और शक्ति के स्थान पर क्षमादान व आत्मसमर्पण की प्रक्रिया को अपनाया जाए तो परिणाम लाभकारी हो सकते हैं। इस सुझाव पर बुंदेलखंड के गवर्नर जनरल के राजनीतिक प्रतिनिधि एवं कंपनी सरकार के सचिव टी. एच. मेडक ने 2 नवंबर 1882 को गवर्नर जनरल लॉर्ड एलनबरो की ओर से घोषणा की कि जो विद्रोही अपराधी प्रवृति का त्याग कर सामाजिक जीवन बिताने की इच्छा से आत्मसमर्पण करेंगे कंपनी सरकार उनके अपराध विस्मृत कर क्षमादान का वचन देती है। साथ ही विद्रोहियों पर दबाव बढ़ाने के लिए इलाहाबाद, बनारस, नागपुर, झांसी, कानपुर तथा इटावा से सहायता के लिये फौजें मंगवायी। मेजर स्लीमन को फौज की कमान सौंपी गई। होलकर, दतिया, झांसी, बिजनौर, पन्ना, छतरपुर, चरखारी, शाहगढ़ और रीवां के राजाओं से विद्रोहियों को पकड़वाने के लिए सहायता मांगी। विद्रोहियों को पकड़वाने वालों को भारी पुरस्कार देने की घोषणा की गई। विद्रोहियों में भी फूट डालने का प्रयत्न किया गया।

इस घोषणा के प्रसार से विद्रोहियों का उत्साह ढीला हो गया। पुरस्कार के लालच में भाई-भाई का दुश्मन बन गया। शाहगढ़ के राजा बखतबली बुंदेला एवं बानपुर के राजा मर्दन सिंह बुंदेला तथा अन्य कई राजा जागीरदार क्षमादान व पुरस्कार की घोषणा से प्रेरित होकर विद्रोहियों को आत्मसमर्पण कराने अथवा पकड़वाने में सक्रिय हो गये। शाहगढ़ के राजा बखतबली बुंदेला ने विद्रोहियों के अग्रगण्य हीरापुर के लोधी राजा महाराजा हिरदेशाह जूदेव को दिनांक 21 नवंबर 1842 के दिन पकड़वा दिया। महाराजा हिरदेशाह को चुनार दुर्ग में कैद कर बड़ी यातनायें दी गई। इनके पकड़े जाने से विद्रोही मुहिम को गहरी क्षति पहुंची। महाराजा हिरदेशाह के साथ उनका पूरा परिवार भी बंदी बनाया गया था।

जैतपुर (महोबा) के विद्रोही राजा परीक्षत बुंदेला को जनवरी 1843 में जैतपुर निवासी मजबूत सिंह कायस्थ ने जतारा में गिरफ्तार करवा दिया। उन्हें कानपुर में कैद कर फांसी दे दी गई। राजा हिरदेशाह, राजा परीक्षत एवं मधुकरशाह विद्रोह के प्रमुख स्तंभ थे, उनकी गिरफ्तारी के बाद बहुत से विद्रोहियों को आत्मसमर्पण करना पड़ा। डोंगर का दौलत सिंह काफी दिनों तक आतंक मचाये रहा। कठिन परिश्रम के बाद अंग्रेजी सैनिक उसे पकड़ पाए। उसे झांसी में फांसी दे दी गई। इस प्रकार 1841 से 1843 के अंत तक बुंदेलखंड के वीरों ने कंपनी सरकार की तानाशाही और प्रशासनिक व्यवस्था के प्रति असंतोष प्रकट करते हुए उसके शासन को उखाड़ फेंकने का प्रयत्न किया था, यद्यपि यह विद्रोह दबा दिया गया, लेकिन वह आग जो राजा हिरदेशाह जूदेव ने बुंदेलखंड में प्रज्वलित की थी अंदर ही अंदर सुलगती रही, और सन 1857 में भयंकर विस्फोट के रूप में फूट पड़ी।

महाराजा हिरदेशाह जूदेव 21 नवंबर, 1842 के दिन चुनार दुर्ग में कैद अवश्य कर लिये गये थे किन्तु उनकी गिरफ्तारी से कंपनी सरकार के विरुद्ध व्यापक विद्रोह की स्थितियां उत्पन्न हो गयीं थीं जिसे दबा पाना कंपनी सरकार के लिये संभव नहीं था, अत: 1843 में ही उन्हें इस विनम्र शर्त के साथ रिहा कर दिया गया कि वे आगे विद्रोह नहीं करेंगे। लेकिन स्वातंत्र्य प्रेमी व स्वाभिमानी महाराजा हिरदेशाह को कोई भी शर्त स्वीकार नहीं थी। इसलिये अवसर मिलते ही 1857-58 के स्वतांत्र्य समर में उनका पूरा परिवार समस्त सैन्यबल के साथ पुनः अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध में डट गया। इस स्वातंत्र्य समर में महाराजा हिरदेशाह युद्ध करते हुए 28 अप्रैल 1858 को शहीद हो गये, जबकि उनके एक भाई सावंत सिंह जूदेव 1857 के समर में शहीद हो गए थे तथा दूसरे भाई गजराज सिंह जूदेव भी अंग्रेजों से युद्ध करते हुए गिरफ्तार हुए और सन 1858 के मध्य में उन्हें भी फाँसी दे दी गयी तथा महाराजा हिरदेशाह जूदेव के पुत्र राजकुमार मेहरबान सिंह 20 दिसंबर 1857 को अंग्रेजों से युद्ध करते हुए शहीद हुये थे।

महाराजा हिरदेशाह लोधी के स्वातंत्र्य समर की विरासत को महारानी अवंतिबाई ने आगे बढाया और वीरगति को प्राप्त हुयीं। जब ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया ने भारत की बागडोर ईस्ट इंडिया कंपनी से अपने हाथ में ली, उदारता का परिचय देते हुये सभी विद्रोहियों तथा राजाओं को माफ़ कर दिया तथा उनके वंशजों को जीविका हेतु ज़मीनें और पेंशन प्रदान की, लेकिन महाराजा हिरदेशाह को उन्होंने माफ़ नहीं किया। इससे महाराजा हिरदेशाह जूदेव लोधी के प्रति अंग्रेजों के शत्रुताभाव का अनुमान लगाया जा सकता है।

महाराजा हिरदेशाह जूदेव के हीरागढ़ राज्य के अंतर्गत 1883 गाँव थे। उनके पास 80 बड़ी तोपें, 100 छोटी तोपें, 200 गुराबें, 7 हाथी, 1600 घोड़े व अश्वारोही सैनिक, 21686 पैदल सैनिक, 500 साड़िया (ऊँट), 200 खच्चर थे। वर्तमान में उनके वंशज महाराज कोशलेन्द्र सिंह जूदेव लोधी को मध्य प्रदेश सरकार ने उनके पूर्वजों की छीनी गयी कुल ज़मीन में से केवल एक सौ एकड़ जमीन दी थी, वह भी वन विभाग ने वापस ले ली है। आज वे साधारण किसान के रूप में जीवन जीने पर विवस है। 

यहाँ ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि बुंदेलखंड के लोधी क्षत्रिय एवं गौड़ लोगों द्वारा गवर्नर जनरल से क्षमा न मांगने के कारण कंपनी सरकार ने 1843 में ही अपराधी प्रवृत्ति का घोषित कर दिया था। इसके बाद लोधियों व गौड़ों ने 1857 में ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध फिर सशस्त्र विद्रोह किया। एक से अधिक पीढ़ी तक विद्रोह करने और स्वातंत्र्य समर विफल होने के पश्चात् ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया से क्षमा न मांगने के कारण और उन्हें आनुवांशिक अपराधी माना गया और उन्हें क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट, 1871 के तहत जन्मजात अपराधी घोषित किया गया।

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